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सत्संग क्या है

  • Writer: vinai srivastava
    vinai srivastava
  • Apr 3, 2023
  • 3 min read

सत्संग का अर्थ सामान्य लोग सोचते हैं जहाँ कुछ लोग वाद्ययंत्रों के साथ य बिना वाद्ययंत्रों के कीर्तन करें, भजन करें, राम, कृष्ण या किसी भगवान की चर्चा करें जिसका पुराणो में , शास्त्रों में अर्थात रामायण, महाभारत गीता आदि में वर्णन हो। परन्तु सत्संग का गूढ़ अर्थ है। सत्संग दो शब्द सत् और संग का मिश्रित शब्द है।

सत् न तो कोई रूप है; ना आकार हैं; न कोई वस्तु है और ना ही कोई भाव है, विचार है। सत् वो ऊर्जा, शक्ति है जो सभी वस्तु, भाव, विचार और क्रिया या कर्म में शाश्वत उपस्थित है; कभी बदलती नहीं है। कुछ समानता हम ऐसे सोच सकते हैं जैसे कपास, कपास के धागे में होता है, उस धागे से बनी हुई तमाम सामग्री जैसे विभिन्न कपड़े, चादर इत्यादि में होता है जिसे कपास नहीं कहा जा सकता परन्तु मूल रूप में कपास से ही उत्पन्न है । सारी वस्तुएँ कालान्तर में अपने रूप, आकार, गंध, ध्वनि को बदल देती है जो दिखाई पड़ती है नेत्रों से, अनुभव होती है कानों से, नासिका से, जिह्वा से, य स्पर्श से। परंतु ये बदलाव उस शक्ति या ऊर्जा द्वारा ही संभव है जो स्वयं नहीं बदलती वरन सब कुछ बदल देती है। हम उस सत् का प्रभाव स्वयं के शरीर व मन पर महसूस करते है, परन्तु उस ऊर्जा य शक्ति से अनजान रहकर जैसे प्रकाश को कोई नहीं देख पाता परन्तु प्रकाश की उपस्थिति में चीजें दिखती है, महसूस की जाती है अर्थात् सत् सतत् हम सब के साथ रहता है, उसी को हम राम, कृष्ण, हनुमान आदि पौराणिक पात्रो के क्रिया कलापों के माध्यम से अनुभव करना चाहते है।

मन व विचार का प्रवाह या धारा उच्च स्थिति से निम्न स्थिति की तरफ होती है संपूर्ण जगत में। इस जगत में हम स्वयं को केंद्र मानते है जैसे मेरा शरीर है, मेरा घर है, मेरा परिवार है, मेरे मित्र, मेरा समाज है इत्यादि। दूसरे शब्दों में हम इस जगत में हमारा संसार बसाते हैं, पर उस सब के बीच केंद्र में हमी तो हैं जो अच्छा लगता है वो केंद्र के करीब और जो नहीं अच्छा लगता है वो केंद्र से दूर है। ये दूरी स्थान की नहीं है वरन् मानसिक हैं। सारे प्राणी, वस्तुएँ जो हमारे संग हैं वो हमारे लिए ही है ऐसा मूल भाव होता है जो पूर्ण स्वार्थ भाव है। सभी परिवर्तन हमारे लिए ही है। इस भाव से कि सभी हमारी भोग्य वस्तुएँ हैं। ऐसा हम सब मानते हैं मन, वचन, व कर्म से। यदि सभी स्वयं के लिए ही जीने लगे बिना दूसरे की परवाह किए वह भी पूर्ण स्वार्थ भाव से तो सृष्टि में कोहराम मच जाएगा। इसलिए इस धारा को उल्टा करना ही जीवन की सामूहिक सार्थकता है अर्थात् हमें दूसरों की परवाह करते हुए किस प्रकार जीना है ,दूसरे शब्दों में धारा को राधा बनाना है, उस सत् को साक्षी मानकर। इस प्रकार के जीवन के विस्तार को एक साधना माना गया जिसमें परिवार, गृहस्थी, समाज के विस्तार की रूपरेखा निर्धारित की गई, यम, नियम बनाए गए ताकि प्रत्येक साधक जो साधना करें इस सत् का अनुभव कर सके; वो सत् जो सब में है, हर पल में है, हर परिवर्तन में है। ऐसे साधक या साधु का संग ही सत्संग होगा। यदि उस परम सत्य या सत का, किसी पौराणिक पात्र, या उसके द्वारा दी शिक्षा की चर्चा हो वो भी सत्संग है। कबीर ने ऐसे सत्संग में उपस्थित होने मात्र को भी सत्संग की संज्ञा दी है। उनका दोहा है-

कबीरा संगती साधु की, ज्यों गंधी की वास्। जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी वास सुवास।

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